इस दलील के बावजूद कुछ लोग ईश्वर को केवल काल्पनिक पात्र मान सकते हैं। इसके पीछे उनकी यह भी दलील हो सकती है कि मानव जीवन की उत्पत्ति पृथ्वी की किसी एक जगंह से हुई हो और फिर धीरे धीरे वह पूरी पृथ्वी पर फैल गये हों। चूंकि उसी एक स्थान पर ईश्वर की कल्पना रची गयी इसलिए वह पूरी पृथ्वी पर समान रूप में पहुंची। इस कल्पना के पीछे एक कारण यह भी हो सकता है कि मुसीबतों में किसी हमदर्द की तलाश या जालिम को उसके अंजाम से खौफ दिलाना। मनुष्य के जीवन में कई अवसर ऐसे आते हैं जब वह बुरी तरंह मुसीबतों से घिर जाता है, उनसे बचाव का कोई रास्ता उसे सुझायी नहीं देता। तब अपने दिल को दिलासा देने के लिए, आशा की एक किरण पैदा करने के लिए अल्लाह की कल्पना का सहारा लेते हैं, और इससे पूरी तरंह निराशाजनक स्थिति में पहुँचने से बच जाते हैं । इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति अत्याचारी है लोग उससे भयभीत हो रहे हैं, तो उसके अत्याचार से मुक्ति पाने के लिए खुदा या ईश्वर का खौफ दिलाया जाता है। ताकि उसके अत्याचारों पर अंकुश लग सके।
अल्लाह के वजूद के बारे में बहुत से लोग इससे पहले गुणों के स्पष्टीकरण से संतुष्ट हो सकते हैं। क्योंकि अल्लाह के जो भी गुण धर्मों में बयान किये गये हैं, वे आधुनिक साइंस के नियमों पर खरे उतरते हैं और तर्कसंगत हैं। अगर अल्लाह की कल्पना बीते युगों में की जाती तो वह गुण आधुनिक विज्ञान के संदर्भों में विरोधाभास पैदा कर देते। लेकिन उपरोक्त अध्ययन में हमने देखा कि कहीं कोई विरोधाभास नहीं है।
यह एतराज उठाया जा सकता है कि हो सकता है हमने अल्लाह के सिर्फ उन गुणों को लिया है जो आधुनिक साइंस के संदर्भों में खरे उतरते हैं। उदाहरण के लिए कुछ धर्म अल्लाह को सशरीर मानते हैं, यह गुण हमने छोड़ दिया क्योंकि आधुनिक विज्ञान के संदर्भों में यह तर्कसंगत नहीं प्रतीत हुआ। इसी तरंह बन्दे जो कुछ भी काम करते हैं भला या बुरा वह अल्लाह अपनी मर्जी से करवाता है इसे भी हमने अस्वीकार कर दिया और सिर्फ उन गुणों को लिया जो अपने ज्ञान के अनुसार सिद्ध कर सकें। यहां पर देखा जाये तो हमने अल्लाह के कुछ गुणों को तर्कसंगत सिद्ध किया है, अल्लाह के वजुद को नहीं सिद्ध किया है, कि वह वास्तव में मौजूद है या केवल एक सुपरमैन जैसी कल्पना मात्र है।
जबकि ब्रह्माण्ड में जो भी वजूद है उसका अस्तित्व सिद्ध होना चाहिए। प्रायोगिक रूप में न सही तो गणितीय रूप में, विभिन्न समीकरणों द्वारा सिद्ध होना चाहिए। क्योंकि बहुत से ऐसे सिद्धान्त या रचनाएं जो पहले अज्ञात थीं, गणितीय समीकरणों के रूप में अस्तित्व में आयीं और बाद में उनकी प्रायोगिक पुष्टि भी हो गयी।
2 comments:
"अल्लाह का वजूद"
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‘बिस्मिल्लाह’ के अक्षरों में छिपा रहस्य
पवित्र कुरआन का आरम्भ जिस आयत से होता है वह खुद इतना बड़ा गणितीय चमत्कार अपने अन्दर समाये हुए है जिसे देखकर हरेक आदमी जान सकता है कि ऐसी वाणी बना लेना किसी मुनष्य के बस का काम नहीं है। एकल संख्याओं में 1 सबसे छोटा अंक है तो 9 सबसे बड़ा अंक है और इन दोनों से मिलकर बना 19 का अंक जो किसी भी संख्या से विभाजित नहीं होता।
पवित्र कुरआन का आरम्भ ‘बिस्मिल्लाहिर-रहमानिर रहीम’ से होता है। इसमें कुल 19 अक्षर हैं। इसमें चार शब्द ‘इस्म’(नाम), अल्लाह,अलरहमान व अलरहीम मौजूद हैं। परमेश्वर के इन पवित्र नामों को पूरे कुरआन में गिना जाये तो इनकी संख्या इस प्रकार है-
इस्म-19,
अल्लाह- 2698,
अलरहमान -57,
अलरहीम -114
अब अगर इन नामों की हरेक संख्या को ‘बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम’ के अक्षरों की संख्या 19 से भाग दिया जाये तो हरेक संख्या 19, 2698, 57 व 114 पूरी विभाजित होती है कुछ शेष नहीं बचता।
है न पवित्र कुरआन का अद्भुत गणितीय चमत्कार-
# 19 ÷ 19 =1 शेष = 0
# 2698 ÷ 19 = 142 शेष = 0
# 57 ÷ 19 = 3 शेष = 0
# 114 ÷ 19 = 6 शेष = 0
पवित्र कुरआन में कुल 114 सूरतें हैं यह संख्या भी 19 से पूर्ण विभाजित है।
पवित्र कुरआन की 113 सूरतों के शुरू में ‘बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्ररहीम’ मौजूद है, लेकिन सूरा-ए-तौबा के शुरू में नहीं है। जबकि सूरा-ए-नम्ल में एक जगह सूरः के अन्दर, 30वीं आयत में बिस्मिल्लाहिर्रमानिर्रहीम आती है। इस तरह खुद ‘बिस्मिल्ला- हर्रहमानिर्रहीम’ की संख्या भी पूरे कुरआन में 114 ही बनी रहती है जो कि 19 से पूर्ण विभाजित है। अगर हरेक सूरत की तरह सूरा-ए-तौबा भी ‘बिस्मिल्लाह’ से शुरू होती तो ‘बिस्मिल्लाह’ की संख्या पूरे कुरआन में 115 बार हो जाती और तब 19 से भाग देने पर शेष 1 बचता।
क्या यह सब एक मनुष्य के लिए सम्भव है कि वह विषय को भी सार्थकता से बयान करे और अलग-अलग सैंकड़ों जगह आ रहे शब्दों की गिनती और सन्तुलन को भी बनाये रखे, जबकि यह गिनती हजारों से भी ऊपर पहुँच रही हो?
bhai ye bata do akhir aap log kar ke kya manoge?
aapka group to badhta hi ja raha hai.
kya hum apni dukan utha len?
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