धर्मग्रंथों में स्पष्ट कथन मिलता है कि उसने सृष्टि में हर वस्तु की रचना की और उसे उसके टाइम के हवाले किया। यानि कोई प्राणी विशेष पैदा होगा लेकिन अपने वक्त पर। तारों का नोवा बनना और फिर सुपरनोवा बनना अपने वक्त पर होता है, जिसके हवाले यह घटना की जाती है। फूलों का खिलना, कोई वैज्ञानिक आविष्कार या कोई नयी खोज सब कुछ अपने वक्त पर होता है।
यहां पर मानवीय निर्माण और ईश्वरीय निर्माण के बीच एक अन्तर स्पष्ट करना जरूरी है। जब मानव कोई रचना करता है या कोई नया आविष्कार करता है तो उसके आगे कोई उदाहरण मौजूद रहता है। जब उसने बिजली के बल्ब का आविष्कार किया तो उसके सामने गर्म लोहे का उदाहरण था जो कि बहुत ज्यादा ताप मिलने पर लाल होकर प्रकाश देने लगता है। जब मनुष्य ने विद्युत बनायी तो आकाशीय विद्युत का उदाहरण उसके सामने था। पहिए का उदाहरण उसने लकड़ी के गोल लट्ठों से लिया। तो कम्प्यूटर का उदाहरण उसने स्वयं के मस्तिष्क से लिया।
लेकिन जब अल्लाह ने सृष्टि का निर्माण किया तो उसके सामने कोई उदाहरण पहले से मौजूद नहीं था। क्योंकि सृष्टि से पहले केवल शून्य था, जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है। इसलिए उसने अपनी रचनाओं की किसी से तुलना नहीं की। दूसरा अन्तर ये है कि हम अपने आविष्कारों में वक्त के और पूर्व खोजों के मोहताज रहे हैं। टेलीविजन से पहले पिक्चर ट्यूब का आविष्कार हुआ। अगर टेलीफोन और कम्प्यूटर का आविष्कार नहीं होता तो इंटरनेट का निर्माण भी नहीं हो पाता। यानि हर आविष्कार अपने पूर्व आविष्कारों पर निर्भर है।
लेकिन अल्लाह की खिलकत इस तरह की नहीं है। उसने सृष्टि की तुच्छ से तुच्छ और बड़ी से बड़ी रचना सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही कर ली थी। और उन्हें उनके समय के साथ कर दिया था। जब वह समय आ गया तो उसके साथ वह रचनाएं भी वास्तविक रूप में आ गयीं। इन कथनों में लोगों को विरोधाभास मिल सकता है लेकिन इसका कारण यही है कि हम सभी बातों की टाइम के साथ तुलना करते हैं। उन नियमो को दृष्टि में रखते हुए जो टाइम पर निर्भर हैं। लेकिन टाइम से अलग हट कर विचार करने पर उपरोक्त विरोधाभास गायब हो जायेंगे।
बात चली है टाइम की तो इससे सम्बंधित कुछ और बातों पर विचार कर लिया जाये। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि टाइम की उत्पत्ति उसी समय हुई जब इस सृष्टि की रचना हुई। और उसी समय दिशाएँ या डाइमेंशन भी बनीं। चूंकि इन सब की रचना शून्य से हुई इसलिए इनका भी निगेटिव होना चाहिए। यानि टाइम के साथ साथ उसका निगेटिव टाइम भी अस्तित्व में होना चाहिए।
7 comments:
dont take tension my dear
every think should be done by god
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भाई जीशान,
धर्मग्रंथों में स्पष्ट कथन मिलता है कि उसने सृष्टि में हर वस्तु की रचना की...
सभी धर्म यह तर्क देते हैं कि सृष्टि का रचनाकार कौन ?... और जवाब है ईश्वर... धर्म का तर्क यह भी है कि सृष्टि स्वयमेव अस्तित्व में आ नहीं सकती...इसलिये यह तय है कि ईश्वर ने उसे बनाया।
अब इसी तर्क को और विस्तार दो... ईश्वर भी स्वयमेव अस्तित्व में नहीं आ सकता... किसने बनाया उसे ???... अगर किसी नें नहीं ...तो धर्म के तर्क से ही ऐसी कोई चीज हो ही नहीं सकती जिसका रचनाकार न हो...
अत: ईश्वर है ही नहीं...काहे परेशान हो मेरे यार।
यह मेरा अपना ओरिजिनल तर्क नहीं हैयहाँ से उठाया है मैंने इसे पर किसी के पास इसका जवाब नहीं है... यह कड़वी हकीकत है।
प्रवीण जी,
अगर कोई वस्तु परिवर्तनशील है तो कहा जा सकता है की वह कभी न कभी पैदा हुई है. और उसको किसी ने बनाया है. लेकिन जो कभी परिवर्तित नहीं होता. उसपर यह नियम लागू नहीं होता, और ऐसी केवल ईश्वर की हस्ती है.
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अगर कोई वस्तु परिवर्तनशील है तो कहा जा सकता है की वह कभी न कभी पैदा हुई है. और उसको किसी ने बनाया है. लेकिन जो कभी परिवर्तित नहीं होता. उसपर यह नियम लागू नहीं होता, और ऐसी केवल ईश्वर की हस्ती है.
जीशान भाई,
सबसे पहले तो जवाब के लिये शुक्रिया,
पर आपके इस जवाब से भी मसला हल नहीं होता...ईश्वर क्यों कभी परिवर्तित नहीं होता ?...
और यह बात आदमी को पता कैसे चली ?... जिन लोगों ने ईश्वर की ओर से बोलने का दावा किया, उनकी बात को तो तभी मान सकते हैं जब आपकी आस्था और विश्वास उन पर हो... अब सबसे बड़ा विवाद इसी आस्था और विश्वास के जरूरी होने के कारण ही है।... जबकि बाकी चीजों के अस्तित्व के बारे में आश्वस्त होने के लिये इनकी जरूरत नहीं होती... उनका अस्तित्व स्वयंसिद्ध होता है।
एक और बात जो यहाँ पर पेंच फंसाती है वह यह है कि जब सभी वस्तुऐं परिवर्तनशील हैं और परिवर्तनशीलता एक शाश्वत नियम है तो ईश्वर पर यह क्यों लागू नहीं होता ? ऐसी आस्था और विश्वास का कारण क्या है ? और क्यों दिखाये कोई ऐसी आस्था और विश्वास ?
प्रवीण जी, सबसे पहले तो मेरी पोस्ट में रुचि लेने के लिए शुक्रिया.
....जिन लोगों ने ईश्वर की ओर से बोलने का दावा किया, उनकी बात को तो तभी मान सकते हैं जब आपकी आस्था और विश्वास उन पर हो... अब सबसे बड़ा विवाद इसी आस्था और विश्वास के जरूरी होने के कारण ही है।..."
वैसे तो कहावत है की बड़े बूढों की बात ग़लत नहीं होती. लेकिन अगर आप इसे न माने तो हम इसे दूसरी तरह समझते है. जहाँ तक हम डाएरेक्ट न पहुँच सकें उस चीज़ को समझने के लिए Approach या Implication का उपयोग होता है. अगर कंप्यूटर है तो इन्जिनेअर है, इंजिनीअर है तो मनुष्य है, मनुष्य है तो कोशिका है, कोशिका है तो एटम है..... ये 'अंतहीन' सिलसिला ही ले जाता है ईश्वर की तरफ.क्योंकि इस सिलसिले में हर जगह Intelligent design के दर्शन होते है.
"जबकि बाकी चीजों के अस्तित्व के बारे में आश्वस्त होने के लिये इनकी जरूरत नहीं होती... उनका अस्तित्व स्वयंसिद्ध होता है।"
ये ठीक है की हर वस्तु का अस्तित्व स्वयंसिद्ध है, लेकिन हमारे लिए वह तभी अस्तित्व में आती है जब हम उसे किसी तरीके से Observe करते है.लेकिन जिनको Observe नहीं कर पाते वह अस्तित्व में नहीं है, क्या ऐसा कहना तर्कसंगत है? आज से ५०० वर्ष पहले कोई Oxygen के बारे में नहीं जानता था तो क्या इस गैस का अस्तित्व नहीं था? Universe में Black Hole और Atom में Meson का अस्तित्व किस तरह स्वयंसिद्ध है?
'एक और बात जो यहाँ पर पेंच फंसाती है वह यह है कि जब सभी वस्तुऐं परिवर्तनशील हैं और परिवर्तनशीलता एक शाश्वत नियम है तो ईश्वर पर यह क्यों लागू नहीं होता?'
दुनिया का कोई भी नियम शाश्वत नहीं है. हर नियम की एक सीमा है. उदाहरण के लिए गुरुत्वाकर्षण, यह सिर्फ Mass Bodies पर लागू होता है, Massless bodies पर नहीं.
"ऐसी आस्था और विश्वास का कारण क्या है ? और क्यों दिखाये कोई ऐसी आस्था और विश्वास?"
आगे के भागों में इसपर विस्तार से चर्चा है. 'ईश्वर का अस्तित्व क्यों और कैसे?' शीर्षक के अंतर्गत.
वैज्ञानिक नज़रिये से देखा जाये तो पवित्र कुरआन अल्लाह के वजूद की खुद एक बड़ी दलील है।
हज़रत मुहम्मद (स.) आज हमारी आँखों के सामने नहीं हैं लेकिन जिस ईश्वरीय ज्ञान पवित्र कुरआन के ज़रिये उन्होंने लोगों को दुख निराशा और पाप से मुक्ति दिलाई वह आज भी हमें विस्मित कर रहा हैै।
यह स्वयं दावा करता है कि यह ईश्वर की ओर से है। यह स्वयं अपने ईश्वरीय होने का सुबूत देता है और अपने प्रति सन्देह रखने वालों को अपनी सच्चाई की कसौटी और चुनौती एक साथ पेश करता है कि अगर तुम मुझे मनुष्यकृत मानते हो तो मुझ जैसा ग्रंथ बनाकर दिखाओ या कम से कम एक सूरः जैसी ही बनाकर दिखाओ और अगर न बना सको तो मान लो कि मैं तुम्हारे पालनहार की ओर से हूँ जिसका तुम दिन रात गुणगान करते हो। मैं तुम्हारे लिए वही मार्गदर्शन हूँ जिसकी तुम अपने प्रभु से कामना करते हो। मैं दुखों से मुक्ति का वह एकमात्र साधन हूँ जो तुम ढूँढ रहे हो।
पवित्र कुरआन में जल-थल का अनुपात
एक इनसान और भी ज़्यादा अचम्भित हो जाता है जब वह देखता है कि ‘बर’ (सूखी भूमि) और ‘बह्र’ (समुद्र) दोनांे शब्द क्रमशः 12 और 33 मर्तबा आये हैं और इन शब्दों का आपस में वही अनुपात है जो कि सूखी भूमि और समुद्र का आपसी अनुपात वास्तव में पाया जाता है।
सूखी भूमि का प्रतिशत- 12/45 x 100 = 26.67 %
समुद्र का प्रतिशत- 33/45 x 100 = 73.33 %
सूखी जमीन और समुद्र का आपसी अनुपात क्या है? यह बात आधुनिक खोजों के बाद मनुष्य आज जान पाया है लेकिन आज से 1400 साल पहले कोई भी आदमी यह नहीं जानता था तब यह अनुपात पवित्र कुरआन में कैसे मिलता है? और वह भी एक जटिल गणितीय संरचना के रूप में।
क्या वाकई कोई मनुष्य ऐसा ग्रंथ कभी रच सकता है?
क्या अब भी पवित्र कुरआन को ईश्वरकृत मानने में कोई दुविधा है?
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http://hamarianjuman.blogspot.com/
Please do not try to undermine the miracle of Qur'an by quoting from faulty and wrong data.
You may refer to the UNESCO project site http://catdir.loc.gov/catdir/samples/cam034/2002031201.pdf for the correct data.
The surface area of water in all the oceans is 361.3 million Sq.Km.
Please know that this does not include the water contained by lakes and rivers on the land.
The total surface area of all the lakes is 2.0587 million Sq. Km.
The total average surface area of all the rivers is 10.687 million Sq. Km.
Adding all these we get the total water area on the surface of the planet earth.
361.3+2.0587+10.687= 374.0457
Now the total area of the earth is 510.065 million Sq. Km.
The %age of water on the surface of earth is 374.0457 X 100/510.065 = 73.333%
And naturally the %age of land is 100-73.333 = 26.666%
Actually 29.2% of land area is inclusive of lakes and rivers. The actual land area is 26.67%
गीता मै भगवन श्रीकृष्ण ने कहा है की " मयाध्यक्षेण प्रकृतिम सूयते स चराचरम " अर्थात मेरी अध्यक्षता में प्रकृति जी की मेरी अंतरंगा शक्ति है वह समस्त सृष्टी की रचना एवं उसका निर्वहन करती है . इस प्रकार परमेश्वेर कृष्ण अध्यक्ष भाव से प्रकृति को समस्त भौतिक ज्ञात - अज्ञात नियमो एवं शक्तियों की सहायता से सृष्टी का सञ्चालन करने की अनुमति देते है | इसी वजह से हमें लगता है की संसार को कोई इश्वर नहीं बल्कि प्राकृतिक भौतिक नियम चला रहे है | अतः हम धीरे धीरे अधर्म की और अग्रसर होने लग जाते है और जब उसकी पराकास्था हो जाती है तो इश्वर को अव्यक्त अध्यक्षीय भाव से साक्षात् व्यक्त होना पड़ता है " यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानी भवति भारत , अभूथानाम अधर्मस्य तदात्मनाम सृजामि अहम् ".
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