[2:256] दीन में किसी तरह की जबरदस्ती नहीं क्योंकि हिदायत गुमराही से (अलग) ज़ाहिर हो चुकी तो जिस शख्स ने झूठे खुदाओं बुतों से इंकार किया और अल्लाह ही पर ईमान लाया तो उसने वो मज़बूत रस्सी पकड़ी है जो टूट ही नहीं सकती और अल्लाह सब कुछ सुनता और जानता है
[2:272] (ऐ रसूल) उनका मंज़िले मक़सूद तक पहुँचाना तुम्हारा काम नहीं (तुम्हारा काम सिर्फ़ रास्ता दिखाना है) मगर हॉ अल्लाह जिसको चाहे मंज़िले मक़सूद तक पहुंचा दे[7:56] (लोगों) अपने परवरदिगार से गिड़गिड़ाकर और चुपके - चुपके दुआ करो वह हद से तजाविज़ करने वालों को हरगिज़ दोस्त नहीं रखता और ज़मीन में असलाह के बाद फसाद न करते फिरो और (अज़ाब) के ख़ौफ से और (रहमत) की आस लगा के अल्लाह से दुआ मांगो
[2:11-12] और जब उनसे कहा जाता है कि मुल्क में फसाद न करते फिरो (तो) कहते हैं कि हम तो सिर्फ इसलाह करते हैं. ख़बरदार हो जाओ बेशक यही लोग फसादी हैं लेकिन समझते नहीं .
[88:21-22] तो तुम नसीहत करते रहो तुम तो बस नसीहत करने वाले हो. तुम कुछ उन पर दरोग़ा तो हो नहीं
[109:5-6] और जिसकी मैं इबादत करता हूँ उसकी तुम इबादत करने वाले नहीं. तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन मेरे लिए मेरा दीन
[9:6] और (ऐ रसूल) अगर मुशरिकीन में से कोई तुमसे पनाह मागें तो उसको पनाह दो यहाँ तक कि वह अल्लाह का कलाम सुन ले फिर उसे उसकी अमन की जगह वापस पहुँचा दो ये इस वजह से कि ये लोग नादान हैं
[4 : 80] जिसने रसूल की इताअत की तो उसने अल्लाह की इताअत की और जिसने रूगरदानी की तो तुम कुछ खयाल न करो (क्योंकि) हमने तुम को पासबान (मुक़र्रर) करके तो भेजा नहीं है
[6 : 107] और अगर अल्लाह चाहता तो ये लोग शिर्क ही न करते और हमने तुमको उन लोगों का निगेहबान तो बनाया नहीं है और न तुम उनके ज़िम्मेदार हो
[10 : 99&100] और (ऐ पैग़म्बर) अगर तेरा परवरदिगार चाहता तो जितने लोग रुए ज़मीन पर हैं सबके सब इमान ले आते तो क्या तुम लोगों पर ज़बरदस्ती करना चाहते हो ताकि सबके सब इमानदार हो जाएँ हालॉकि किसी शख्स को ये इखतियार नहीं कि बगै़र अल्लाह की मर्जी ईमान ले आए और जो लोग अक़ल से काम नहीं लेते उन्हीं लोगों पर अल्लाह गन्दगी डाल देता है
[11 : 28] (नूह ने) कहा ऐ मेरी क़ौम क्या तुमने ये समझा है कि अगर मैं अपने परवरदिगार की तरफ से एक रौशन दलील पर हूँ और उसने अपनी सरकार से रहमत (नुबूवत) अता फरमाई और वह तुम्हें सुझाई नहीं देती तो क्या मैं उसको (ज़बरदस्ती) तुम्हारे गले मंढ़ सकता हूँ
[16 : 82] तुम उसकी फरमाबरदारी करो उस पर भी अगर ये लोग (इमान से) मुँह फेरे तो तुम्हारा फर्ज़ सिर्फ (एहकाम का) साफ पहुँचा देना है
[17 : 53&54] और (ऐ रसूल) मेरे (सच्चे) बन्दों (मोमिनों से कह दो कि वह (काफिरों से) बात करें तो अच्छे तरीक़े से (सख्त कलामी न करें) क्योंकि शैतान तो (ऐसी ही) बातों से फसाद डलवाता है इसमें तो शक ही नहीं कि शैतान आदमी का खुला हुआ दुश्मन है
[21 : 107 & 109] और (ऐ रसूल) हमने तो तुमको सारे दुनिया जहाँन के लोगों के हक़ में अज़सरतापा रहमत बनाकर भेजा-----फिर अगर ये लोग (उस पर भी) मुँह फेरें तो तुम कह दो कि मैंने तुम सबको यकसाँ ख़बर कर दी है और मैं नहीं जानता कि जिस (अज़ाब) का तुमसे वायदा किया गया है क़रीब आ पहुँचा या (अभी) दूर है
[22 : 67] इसमें शक नहीं कि इन्सान बड़ा ही नाशुक्रा है (ऐ रसूल) हमने हर उम्मत के वास्ते एक तरीक़ा मुक़र्रर कर दिया कि वह इस पर चलते हैं फिर तो उन्हें इस दीन (इस्लाम) में तुम से झगड़ा न करना चाहिए और तुम (लोगों को) अपने परवरदिगार की तरफ बुलाए जाओ
[24 : 54] (ऐ रसूल) तुम कह दो कि अल्लाह की इताअत करो और रसूल की इताअत करो इस पर भी अगर तुम सरताबी करोगे तो बस रसूल पर इतना ही (तबलीग़) वाजिब है जिसके वह ज़िम्मेदार किए गए हैं और जिसके ज़िम्मेदार तुम बनाए गए हो तुम पर वाजिब है और अगर तुम उसकी इताअत करोगे तो हिदायत पाओगे और रसूल पर तो सिर्फ साफ तौर पर (एहकाम का) पहुँचाना फर्ज़ है
[36 : 16&17] तब उन पैग़म्बरों ने कहा हमारा परवरदिगार जानता है कि हम यक़ीन्न उसी के भेजे हुए (आए) हैं और (तुम मानो या न मानो) हम पर तो बस खुल्लम खुल्ला एहकामे अल्लाह का पहुँचा देना फर्ज़ है
[39 : 41] (ऐ रसूल) हमने तुम्हारे पास (ये) किताब (क़ुरआन) सच्चाई के साथ लोगों (की हिदायत) के वास्ते नाज़िल की है पस जो राह पर आया तो अपने ही (भले के) लिए और जो गुमराह हुआ तो उसकी गुमराही का वबाल भी उसी पर है और फिर तुम कुछ उनके ज़िम्मेदार तो हो नहीं
[42 : 6] और जिन लोगों ने अल्लाह को छोड़ कर (और) अपने सरपरस्त बना रखे हैं अल्लाह उनकी निगरानी कर रहा है (ऐ रसूल) तुम उनके निगेहबान नहीं हो
[42 : 48] फिर अगर मुँह फेर लें तो (ऐ रसूल) हमने तुमको उनका निगेहबान बनाकर नहीं भेजा तुम्हारा काम तो सिर्फ (एहकाम का) पहुँचा देना है और जब हम इन्सान को अपनी रहमत का मज़ा चखाते हैं तो वह उससे ख़ुश हो जाता है और अगर उनको उन्हीं के हाथों की पहली करतूतों की बदौलत कोई तकलीफ पहुँचती (सब एहसान भूल गए) बेशक इन्सान बड़ा नाशुक्रा है
[64 :12] और अल्लाह की इताअत करो और रसूल की इताअत करो फिर अगर तुमने मुँह फेरा तो हमारे रसूल पर सिर्फ़ पैग़ाम का वाज़ेए करके पहुँचा देना फर्ज़ है
[60 : 8&9] जो लोग तुमसे तुम्हारे दीन के बारे में नहीं लड़े भिड़े और न तुम्हें घरों से निकाले उन लोगों के साथ एहसान करने और उनके साथ इन्साफ़ से पेश आने से अल्लाह तुम्हें मना नहीं करता बेशक अल्लाह इन्साफ़ करने वालों को दोस्त रखता है. अल्लाह तो बस उन लोगों के साथ दोस्ती करने से मना करता है जिन्होने तुमसे दीन के बारे में लड़ाई की और तुमको तुम्हारे घरों से निकाल बाहर किया और तुम्हारे निकालने में (औरों की) मदद की और जो लोग ऐसों से दोस्ती करेंगे वह लोग ज़ालिम हैं
[4 : 80] जिसने रसूल की इताअत की तो उसने अल्लाह की इताअत की और जिसने रूगरदानी की तो तुम कुछ खयाल न करो (क्योंकि) हमने तुम को पासबान (मुक़र्रर) करके तो भेजा नहीं है
[6 : 107] और अगर अल्लाह चाहता तो ये लोग शिर्क ही न करते और हमने तुमको उन लोगों का निगेहबान तो बनाया नहीं है और न तुम उनके ज़िम्मेदार हो.
[5.32]हमने बनी इसराईल पर वाजिब कर दिया था कि जो “शख्स किसी को न जान के बदले में और न मुल्क में फ़साद फैलाने की सज़ा में (बल्कि नाहक़) क़त्ल कर डालेगा तो गोया उसने सब लोगों को क़त्ल कर डाला और जिसने एक आदमी को जिला दिया तो गोया उसने सब लोगों को जिला लिया और उन (बनी इसराईल) के पास तो हमारे पैग़म्बर (कैसे कैसे) रौशन मौजिज़े लेकर आ चुके हैं (मगर) फिर उसके बाद भी यक़ीनन उसमें से बहुतेरे ज़मीन पर ज़्यादतियॉ करते रहे
[5:33] जो लोग अल्लाह और उसके रसूल से लड़ते भिड़ते हैं (और एहकाम को नहीं मानते) और फ़साद फैलाने की ग़रज़ से मुल्को (मुल्को) दौड़ते फिरते हैं उनकी सज़ा बस यही है कि (चुन चुनकर) या तो मार डाले जाएँ या उन्हें सूली दे दी जाए या उनके हाथ पॉव हेर फेर कर एक तरफ़ का हाथ दूसरी तरफ़ का पॉव काट डाले जाएँ या उन्हें (अपने वतन की) सरज़मीन से शहर बदर कर दिया जाए यह रूसवाई तो उनकी दुनिया में हुयी और फिर आख़ेरत में तो उनके लिए बहुत बड़ा अज़ाब ही है
इसका मतलब साफ़ है की अगर कोई तुमसे झगडा नहीं कर रहा है तो तुम्हें उससे झगड़ने या उसे तकलीफ पहुंचाने का कोई हक नहीं. मोमिन मियाँ ने दीने इस्लाम लगता है किसी तालिबानी मुल्ला से पढ़ा है, वरना वह ऐसी बातें हरगिज़ न कहते.
अब बात करते हैं सुलह की जो मोहम्मद (स.अ.) ने मक्के के काफिरों से की थी, उस सुलह के नियमों की अवहेलना मक्के वाले खुले आम कर रहे थे और मुसलमानों को परेशान कर रहे थे. उसके बाद सूरे तौबा नाजिल हुई. <b>हर कानून में IF - Then होता है.</b> मोमिन मियाँ इस सूरे की 1, 5, 23 आयत तो पढ़ रहे हैं लेकिन आयत नं 12, 13 और 6 पढना भूल गए या टाल गए,
[तौबा आयत नं 12] और अगर ये लोग एहद कर चुकने के बाद अपनी क़समें तोड़ डालें और तुम्हारे दीन में तुमको ताना दें तो तुम कुफ्र के सरवर आवारा लोगों से खूब लड़ाई करो उनकी क़समें का हरगिज़ कोई एतबार नहीं ताकि ये लोग (अपनी शरारत से) बाज़ आएँ.
[तौबा आयत नं 13] (मुसलमानों) भला तुम उन लोगों से क्यों नहीं लड़ते जिन्होंने अपनी क़समों को तोड़ डाला
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