इमाम हज़रत अली (अ.) नहजुल बलाग़ा के खुत्बा नं 109 में बयान करते हैं, ‘वह (दुनिया) धोकेबाज़ है और उसकी हर चीज़ धोका।’
यकीनन पल पल बदलती दुनिया को धोकेबाज़ ही कहा जा सकता है, जिसकी इंसान ख्वाहिश करता है लेकिन नतीजे में उसे मौत के सिवा कुछ हासिल नहीं होता। लेकिन यहाँ खास बात ये है कि जदीद साइंस भी दुनिया को ‘धोका’ ही बता रही है। देखते हैं किस तरह।
हमारे आसपास दो तरह की चीज़ें पायी जाती हैं। अलमारी, मेज़, कुर्सी वगैरा को हम छूकर महसूस कर सकते हैं। ये चीज़ें जगह घेरती हैं। यानि अगर किसी जगह पर एक मेज़ रखी है, तो उस जगह पर दूसरी मेज़ या कोई और चीज़ नहीं रखी जा सकती। इस तरह की चीज़ों में हम कहते हैं कि मैटर या द्रव्यमान मौजूद है, जिसकी वजह से वह चीज़ जगह घेर रही है। इनके अलावा कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं जो मौजूद तो होती हैं लेकिन जगह नहीं घेरतीं। जैसे कि रोशनी, रेडियो वेव्स वगैरा। एक कामन लफ्ज़ इनके लिये एनर्जी का है। यानि एनर्जी जैसी चीज़ जगह नहीं घेरती, इसलिए इसमें द्रव्यमान नहीं होता। लेकिन अब क्वांटम फिज़िक्स के मौजूदा नज़रियात ये बता रहे हैं कि जिन चीज़ों को हम छूकर महसूस कर रहे हैं, वह सिर्फ एक धोका है और द्रव्यमान भी दरअसल एनर्जी की ही शक्ल है। यानि द्रव्यमान का अलग से कोई वजूद नहीं होता।
जदीद साइंस के मुताबिक जो चीज़ें जगहें घेरती हैं, यानि जिनमें द्रव्यमान होता है वो फर्मियान्स नाम के ज़र्रात से मिलकर बनी होती हैं। फर्मियान्स में द्रव्यमान होता है और अगर किसी जगह पर एक फर्मियान मौजूद है तो वहाँ दूसरा फर्मियान नहीं आ सकता। दूसरी तरफ बोसान्स नाम के ज़र्रात होते हैं जो ऐसी चीज़ों को बनाते हैं जो जगह नहीं घेरतीं। जैसे कि रोशनी या ताक़तें।
इनका रेस्ट मास (रुका हुआ द्रव्यमान) ज़ीरो होता है। अगर किसी जगह पर एक बोसान मौजूद है तो वहाँ दूसरा बोसॉन भी आ सकता है।
जब साइंसदानों ने बिग बैंग का नज़रिया दरियाफ्त किया जिसके मुताबिक एक महाधमाके ने यूनिवर्स की पैदाइश की और उसके बाद ही द्रव्यमान रखने वाले फर्मियान्स पैदा हुए। उससे पहले पूरा यूनिवर्स एनर्जी की हालत में एक प्वाइंट में सिमटा हुआ था। यानि जितना भी द्रव्यमान पैदा हुआ वह एनर्जी के बाद ही पैदा हुआ। इस दरियाफ्त ने साइंसदानों को यह सोचने पर मजबूर किया कि हो न हो, द्रव्यमान भी दरअसल एनर्जी की ही हालत है। सन 1964 ई. में पीटर हिग्स नाम के साइंसदाँ ने ‘गॉड पार्टिकिल’ का कान्सेप्ट दिया।
जब साइंसदानों ने बिग बैंग का नज़रिया दरियाफ्त किया जिसके मुताबिक एक महाधमाके ने यूनिवर्स की पैदाइश की और उसके बाद ही द्रव्यमान रखने वाले फर्मियान्स पैदा हुए। उससे पहले पूरा यूनिवर्स एनर्जी की हालत में एक प्वाइंट में सिमटा हुआ था। यानि जितना भी द्रव्यमान पैदा हुआ वह एनर्जी के बाद ही पैदा हुआ। इस दरियाफ्त ने साइंसदानों को यह सोचने पर मजबूर किया कि हो न हो, द्रव्यमान भी दरअसल एनर्जी की ही हालत है। सन 1964 ई. में पीटर हिग्स नाम के साइंसदाँ ने ‘गॉड पार्टिकिल’ का कान्सेप्ट दिया।
उसके मुताबिक दुनिया के तमाम फर्मियान्स में द्रव्यमान खास तरह के बोसान्स के मिलने से पैदा होता है। ये बोसान्स गॉड पार्टिकिल कहलाते हैं। गॉड पार्टिकिल पूरे यूनिवर्स में हिग्स फील्ड की सूरत में बिखरे हुए हैं। जब इनमें से बहुत से पार्टिकिल एक जगह पर इकट्ठा हो जाते हैं तो एक फर्मियान ज़र्रे की पैदाइश करते हैं जिसे महसूस किया जा सकता है। जबकि खुद गॉड पार्टिकिल को महसूस नहीं किया जा सकता, क्योंकि ये लगातार ज़ाहिर व ग़ायब होते रहते हैं। यानि इन्हें हम एक ‘धोका’ कह सकते हैं। तो फिर इनसे बनी तमाम दुनिया भी एक ‘धोके’ के सिवा कुछ नहीं, ऐसा जदीद साइंस के नज़रिये से साबित हो जाता है।
इससे पूरी तरह अलग साइंस के कुछ और नज़रियों के मुताबिक भी दुनिया एक धोके के सिवा कुछ नहीं। साइंस ने दरियाफ्त किया है कि, ‘जिसे हम बाहरी दुनिया के तौर पर देखते व महसूस करते हैं, वह सिर्फ दिमाग़ के ज़रिये पैदा एक नज़रिया होता है जो हमारे हास्सों से आने वाले इलेक्ट्रिकल सिग्नल पर आधारित होता है।’
दुनिया के रंग जो हम देखते हैं, चीज़ों को छूकर उनकी सख्ती या नर्मी जो हम महसूस करते हैं। चीज़ों की लज़्ज़तें जो हमारी ज़बान चखती है। तरह तरह की आवाज़ें जो हम अपने कानों से सुनते हैं। खुश्बुएं जो हम सूंघते हैं और इसके अलावा अपने आसपास की हर चीज़, हमारा काम, हमारा घर, फर्नीचर, बच्चे, जिन्हें हम अपने क़रीब या दूर देखते हैं, जिनका हमें एहसास होता है वह सब सिर्फ और सिर्फ इलेक्ट्रिक सिग्नल होते हैं जिन्हें हमारे हास्से हमारे दिमाग तक भेजते हैं।
इसको देखते हुए बर्टरैण्ड रसेल और एलक विटिगेन्स्टाइन का कहना है, ‘एक नींबू दरहक़ीक़त वजूद में है या नहीं और यह कैसे वजूद में आया इसे मालूम नहीं किया जा सकता। एक नींबू दरअसल एक ग्रुप होता है ज़ायके, जिसे ज़बान से महसूस करते हैं, खुशबू जिसे नाक महसूस करती है, रंग व सूरत जिसे आँख महसूस करती है, और सिर्फ यही फीचर्स नापे जा सकते हैं यानि इनका मुतालिया किया जा सकता है। साइंस कभी भी फिज़िकल दुनिया को नहीं जान सकती।
फ्रेडरिक वेस्टर का कहना है कि, ‘कुछ साइंसदानों का बयान कि ‘‘इंसान एक इमेज है। सब कुछ जिसका तजुर्बा किया जाता है वह टेम्प्रेरी है और बदलने वाला है और ये पूरा यूनिवर्स एक साये की तरह है’ एक दिन साइंस यकीनन इस बयान को साबित कर देगी।’’
इस तरह बहुत से साइंसदाँ इस दुनिया को एक साये की तरह मानते हैं जिसका असलियत में कोई वजूद नहीं।
हम सिर्फ एक बात को ही कन्फर्मेशन के साथ कह सकते हैं कि दुनिया को देखने का तजुर्बा हर शख्स का अपना ज़ाती होता है, जिसे ‘फिश आई तजुर्बा’ भी कह सकते हैं। पानी में तैरने वाली मछली को जो दुनिया कर्व दिखाई देती है वह हमारी नज़र में सीधी होती है। बड़ी मछली व छोटी मछली को भी एक ही दुनिया अलग अलग शक्लों में नज़र आती है और उनके लिये दुनिया की वही शक्ल असली होती है जबकि हकीकत कुछ और ही होती है।
इस तरह की और जानकारियों के लिये देखें किताब :
नहजुल बलाग़ाह का साइंसी इल्म
लेखक : ज़ीशान हैदर ज़ैदी
प्रकाशक : अब्बास बुक एजेंसी
ई बुक के तौर पर यह किताब इस लिंक से हासिल की जा सकती है :
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