अक्षर हमारी ज़बान और भाषा के मूल होते हैं। अक्षरों के बिना कोई भी भाषा शुरू नहीं होती। अलग अलग भाषाओं में अक्षरों की संख्या अलग अलग है। अगर अंग्रेजी में 26 अक्षर हैं तो उर्दू में 38। हिन्दी में 47 अक्षर हैं तो मराठी में 52। अगर म अक्षरों से निकलने वाली आवाजों की बात करें तो अलग अलग भाषाओं के अक्षरों को समरूपता के आधार पर एक मान सकते हैं। मिसाल के तौर पर अंग्रेजी का ‘ए’, हिन्दी का ‘अ’ और उर्दू का ‘अलिफ’ एक ही माने जायेंगे। इसी तरह अंग्रेजी का ‘डी’, हिन्दी का ‘ड’ और उर्दू का ‘डाल’ एक जैसी आवाज़ निकालते हैं।
कुछ ऐसी भी आवाजें होती हैं जिनके एक भाषा में तो अक्षर मिलते हैं लेकिन दूसरी में नहीं। जैसे ‘प’ के लिये हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी में तो अक्षर हैं लेकिन अरबी में नहीं। इसी तरह अंग्रेजी ‘ज़ेड’ के लिये हिन्दी में शुद्ध अक्षर नहीं है अत: उसे लिखने के लिये ज के नीचे बिन्दी लगानी पड़ती है।
एक ही भाषा में कई ऐसे भी अक्षर हो सकते हैं जिनकी आवाज़ एक जैसी निकले। जैसे हिन्दी का ग और ज्ञ। या श और ष। अगर एक जैसी आवाजों वाले अक्षर कम कर दिये जायें, तो वर्णमाला में कम अक्षरों से काम चल सकता है। तो एक बड़ा सवाल ये पैदा होता है कि एक आदर्श वर्णमाला में कितने अक्षर कम से कम रखे जायें कि सारी आवाजें निकल आयें?
अगर अंग्रेजी को आदर्श मानें तो उसमें द, त और श के लिये अक्षर नहीं हैं। यानि इनके लिये 26 से ज्यादा अक्षर होने चाहिए। इसी तरह अरबी को भी आदर्श नहीं मान सकते वरना ‘प’ के लिये कोई अक्षर नहीं मिलेगा। उर्दू और हिन्दी में ज़रूरत से ज्यादा अक्षर हैं।
इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिये आईए रुख करते हैं इस्लाम की तरफ।
और अल्लाह जो कि आसमानों और जमीन का नूर है, उस ने अपने नूर से ही अजीम (महान) हुरूफों की तखलीक़ की और ये उस का सबसे पहला काम है। यानि हुरूफ ज़ाते हक़ के फेले अव्वल के मफऊल अव्वल हैं। और यह हुरूफ ही हैं जिन पर कलाम और इबादाते इलाही का दारोमदार है। अल्लाह तआला ने तैंतीस (33) हुरूफ खल्क किये जिन में अरबी जबान में अट्ठाइस हुरूफ इस्तेमान होते हैं। और इन्ही अट्ठाइस हुरूफ में से बाइस (22) हुरूफ सूरयानी (Suryani) व इबरानी (हिब्रू) में मौजूद हैं। और पाँच दूसरे हुरूफ अज्मी (अरब से बाहर की ज़बानें जैसे अफ्रीका वगैरा की) और दूसरी ज़बानों में बोले जाते हैं। और यूं इन की कुल तादाद तैंतीस (33) है।
इस तरह यह साफ होता है अल्लाह ने तैंतीस (33) अक्षरों की खिलकत की है। और यह खिलकत मैटर की खिलकत से भी पहले की खिलकत है। यानि इंसान की पैदाइश बाद में हुई, लेकिन उसकी ज़बान की पैदाइश उससे पहले ही हो गयी थी। अब इमाम अली रज़ा (अ-स-) के कौल के मुताबिक किसी भी भाषा में अलग अलग आवाजों के तैंतीस हुरूफ यानि अक्षर हो सकते हैं।
यानि अगर किसी ज़बान में तैंतीस अक्षर अलग अलग आवाजों के लिये जायें तो उनसे पूरी ज़बान यानि भाषा मुकम्मल तरीके से बोली जा सकती है। किसी भी ज़बान में अगर इससे ज्यादा अक्षर हैं तो उनकी आवाजें एक दूसरे से मिलने लगती हैं। जो कि हमारे लिये अनुपयोगी होता है। भाषा विज्ञानी को अगर इसपर अच्छी तरह रिसर्च करें तो आवाज़ पर चलने वाले कम्प्यूटर जैसे यन्त्र विकसित किये जा सकते हैं। जो बेहतर तरीके से काम कर सकते हैं। और शायद आगे चलकर ऐसे कम्प्यूटर विकसित हो जायें जो केवल हमारी आवाज पर काम करने लगें।
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