Monday, January 4, 2010

अल्लाह का वजूद - साइंस की दलीलें (पार्ट-9)


किसी वृत्त के अन्तर्गत अनन्त बिन्दु आते हैं क्योंकि बिन्दु की कोई विमा नहीं होती। यह ठीक उसी तरह की बात है मानो कोई व्यक्ति किसी बर्तन को पानी से भरने के लिए खाली गिलास उसमें डाले स्पष्ट है कि बर्तन कभी नहीं भरेगा। अब यदि यह कहा जाये कि दो असमान साइज के बर्तनों को भरने में समान समय लगेगा तो इस बात का कोई आधार नहीं।

 परन्तु यहां एक बात और है। कुछ ऐसे कण वास्तविक रूप में भी होते हैं जो किसी बिन्दु के समान विमाहीन होते हैं। जैसे फोटॉन, न्यूट्रिनो, एण्टी न्यूट्रिनो इत्यादि। इस प्रकार के कणों को यदि दो असमान वृत्तों या किसी अन्य रूप में रखा जाये तो सभी में से समान संख्या में आयेंगे। प्रायोगिक रूप में हम टार्च का उदाहरण ले सकते हैं। टार्च के छोटे द्वारक से निकलने वाला प्रकाश आगे बढ़कर एक बड़े वृत्त का रूप ले लेता है। इस प्रकार गणित के इस नियम को उपरोक्त उदाहरण द्वारा आधारहीन नहीं कहा जा सकता। चूंकि हम इस नियम का अध्ययन करते वक्त सिर्फ पदार्थिक कणों को अपने जहन में रखते हैं इसलिए कांट्राडिक्शन महसूस होता है। व्यापक रूप में ऊर्जा एक छोटे स्थान में भी समा सकती है और एक बड़े स्थान में बिखर भी सकती है। अब आइंस्टीन के द्रव्यमान ऊर्जा समीकरण के अनुसार पदार्थिक कणों को ऊर्जा के रूप में बदला जा सकता है। इस प्रकार सम्पूर्ण पदार्थिक कण भी एक छोटे स्थान में समा सकते हैं। 

यूनिवर्स के निर्माण में बिग बैंग सिद्धान्त की भी इससे व्याख्या हो सकती है। जिसके अनुसार सम्पूर्ण यूनिवर्स प्रारम्भ में एक छोटे बिन्दु में समाहित था। एक विस्फोट ने इस बिन्दु का विस्तार किया और गैलेक्सीज, तारों, ग्रहों इत्यादि के रूप में यूनिवर्स अस्तित्व में आया। यकीनन प्रथम दृष्टि में यह आश्चर्यजनक लगता है कि दैत्याकार तारे और ग्रह एक छोटे से बिन्दु में विद्यमान थे जो विमाहीन होता है। लेकिन आधुनिक प्रयोगों और सिद्धान्तों के आधार पर वास्तविकता यही है। केवल हमारी सीमित सोच कांट्राडिक्शन को जन्म दे रही है।

यही बात हाईजेनबर्ग के अनिश्चितता के सिद्धान्त पर भी लागू होती है। देखा जाये तो हमारी इन्द्रियों और हमारे उपकरणों द्वारा लिये गये प्रेक्षण (Observations) के शुद्ध होने की एक सीमा होती है। कोई भी उपकरण एक सीमा से अधिक शुद्ध रीडिंग नहीं दे सकता। आँख जब आकाश के किसी तारे को देखती है तो वह तारा वास्तविक रूप में उस स्थान और उस रूप में नहीं होता जहां हम लोकेट करते हैं। क्योंकि कोई वस्तु हमें तभी दिखाई देती है जब प्रकाश की किरणें वहां से आकर हमारी आँखों को संवेदित करती हैं। किसी तारे से पृथ्वी तक प्रकाश आने में हजारों वर्ष लग जाते हैं। जाहिर है कि हम जो तारा देख रहे हैं वर्तमान में वह तारा अपना स्थान बदलकर कहीं का कहीं पहुंच चुका है। 

इस तरह आम जीवन में बहुत सी ऐसी घटनाओं के क्रम हैं जहां अनिश्चितता का जाल हमें चारों ओर से घेरे हुए है। जो भी परिणाम हमें प्राप्त होता है, उसके प्रमाणिक होने की एक प्रोबेबिलिटी होती है जो हमेशा एक से कम होती है।

अनिश्चितता के इसी क्रम में रेडियोऐक्टिविटी की व्याख्या की जा सकती है। किसी रेडियोऐक्टिव एटम से अल्फा या बीटा कण का उत्सर्जन अनिश्चित होता है। और इस उत्सर्जन की प्रोबेबिलिटी आधी होती है। अब अगर किसी रेडियोऐक्टिव एटम को उसकी अर्द्ध आयु जितने पीरियड में रखा जाये तो उनमें से ‘लगभग’ आधे एटम नष्ट होकर किसी दूसरे तत्व के एटम में बदल जायेंगे और लगभग आधे एटम अपने पूर्व रूप में रहेंगे। यही बात अर्द्ध आयु का नियम कहता है। अब अगर यह कहा जाये कि अर्द्ध आयु पीरियड में निश्चित रूप से आधा पदार्थ विघटित हो जाता है तो यह कथन गलत है। अनिश्चितता यहां भी दृष्टव्य होती है।

इस प्रकार साइंटिफिक फील्ड में जो भी विरोधाभास दृष्टव्य होते हैं वह सीमित सोच, इन्द्रियों और वैज्ञानिक उपकरणों की सीमित शुद्धता तथा नियमों की सीमा के कारण उत्पन्न होते हैं। जैसे जैसे हम ज्ञान का विस्तार करते हुए अपनी रिसर्च के पथ पर आगे बढ़ते हैं, यह कांट्राडिक्शन स्वयं समाप्त होते जाते हैं। वास्तव में यह कांट्राडिक्शन ही सही परिणाम तक पहुंचने के लिए प्रकाश स्तम्भों का कार्य करते हैं।