Friday, January 1, 2010

अल्लाह का वजूद - साइंस की दलीलें (पार्ट-7)


कण्टराडिक्शन क्यों? : 
इस तरह हम देखते हैं कि तार्किक और प्रायोगिक दृष्टि से पूर्ण मानी जाने वाली साइंस और मैथेमैटिक्स विरोधाभासों  अछूती नहीं है। बहुत से ऐसे चौराहे पड़ते हैं जहां नियम एक दूसरे से टकरा जाते हैं और फिर नयी समस्याओं से उबरने के लिए नये सिद्धान्त रचित किये जाते हैं। उनकी कसौटी पर फिर प्रयोगों को परखा जाता है। सवाल उठता है कि उपरोक्त कण्टराडिक्शन क्या वास्तव में कण्टराडिक्शन हैं? या ये हमारी संकीर्ण सोच का परिणाम हैं? कण्टराडिक्शन क्यों पैदा होते हैं?

मनुष्य अपने जन्म के साथ ही आसपास के माहौल पर दृष्टि दौड़ाता है और उनसे बहुत कुछ सीखता है। बहुत कुछ उसे सिखाया जाता है। उसके मस्तिष्क में कुछ नियम जन्म लेने लगते हैं। उन नियमों की कसौटी पर वह घटनाओं को देखता है। जो घटनाएं उसे अपने बनाये नियमों के विपरीत लगती हैं, वहीं से विरोधाभासों की शुरुआत होती है। उसके दिमाग में यह नियम बन चुका है कि दहकता अंगारा त्वचा को झुलसा देता है। लेकिन अगर कोई मनुष्य दहकता अंगारा अपनी हथेली पर रख ले और उसकी हथेली पर कोई असर न हो तो यकीनन यह एक आश्चर्य की बात होगी और सुनने वाला विरोधाभास में फंस जायेगा। सूर्य पूरब से निकलता है। (आम भाषा में पृथ्वी की निश्चित गति के कारण।) इसलिए अगर कभी पश्चिम से उगता दिखाई दे तो यह एक कण्टराडिक्शन हो जायेगा। क्योंकि जब से हम ने होश संभाला है और हमारे पूर्वजों ने भी हमेशा उसे पूरब से निकलते देखा है। 

कुल मिलाकर जिन घटनाओं के घटने की संभावना हण्ड्रेड परसेण्ट होती है, उनके न घटने पर या उनकी विपरीत घटना घटने पर कण्टराडिक्शन पैदा होता है।   

मैथेमैटिक्स की एक ब्रांच है थ्योरी आफ प्रोबेबिलिटी। इसके अनुसार जिन घटनाओं को निश्चित ही घटित होना है, उनकी प्रोबेबिलिटी एक होती है, और जिन घटनाओं का घटना असंभव है, उनकी प्रोबेबिलिटी शून्य होती है। सूरज के पूरब से निकलने की प्रोबेबिलिटी और त्वचा को अंगारा झुलसा देता है इसकी प्रोबेबिलिटी वन होती है। इसी तरह हिरन या गाय मांस खाने लगे, इसकी प्रोबेबिलिटी शून्य होती है।

लेकिन कभी कभी वे घटनाएं भी घटित हों जाती हैं जिनकी प्रोबेबिलिटी शून्य होती है। मिसाल के तौर पर छत से टंगे पंखे के नीचे गिरने की प्रोबेबिलिटी शून्य होती है। (पूर्व प्रयोगों के आधार पर।) लेकिन कभी कभी वह नीचे भी गिर जाता है।

कहने का तात्पर्य ये है कि आम जीवन में भी विरोधाभास घटित होते हैं। यह दूसरी बात है कि हम उन्हें विरोधाभास न कहकर संयोग या दुर्घटना कह देते हैं। यह विरोधाभास  इसलिए होते हैं क्योंकि पूर्व प्रयोगों के आधार पर हम कुछ बातें पहले से मान लेते हैं, कुछ समीकरण अपने मन में बिठा लेते हैं और जब कोई घटना या कथन हमारे समीकरण पर खरा नहीं उतरता तो उसे कण्टराडिक्शन का नाम दिया जाता है। लेकिन चूंकि यह बनाये गये समीकरण एक सीमित प्रयोग और प्रेक्षण की पैदावार होते हैं इसलिए इनमें गलती होने की संभावना रहती है। बल्कि इसे गलती भी नहीं कहना चाहिए। वास्तव में यह नियम सीमित होते हैं अर्थात एक निश्चित सीमा के अन्तर्गत कार्य करते हैं। उसी सीमा में जिसमें प्रयोग और प्रेक्षण किये जाते हैं। अब अगर उस नियम या उस समीकरण में सीमा के बाहर का कोई वैरियेबुल आ गया अर्थात एक ऐसा घटक जो उस नियम को प्रभावित कर दे, लेकिन हमारी बनायी सीमा का पालन न करता हो तो उस एक्सपेरीमेन्ट के परिणाम हमें अलग मिलने लगेंगे। जो उस नियम या समीकरण का पालन नहीं करेंगे जिसे हमने एक सीमा के अन्तर्गत बनाया था।

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