अपने को मोमिन बताने वाले इन महाशय ने अपनी नई पोस्ट में एक हदीस लेकर आये हैं. जिसके अनुसार रसूल मोहम्मद (स.) की अपने सहाबी हज़रत अबुज़र से सूरज के डूबने के बारे में बातचीत है. जो आधुनिक साइंस के एतबार से ग़लत है. लिहाज़ा मोमिन महाशय ने फतवा दे दिया की पैगम्बर मोहम्मद (स.) लाल बुझक्कड़ थे. हालांकि इसके फ़ौरन बाद ही अपनी पोस्ट में अनजाने में मोमिन मियां ने इसका खंडन भी कर दिया. जब उन्होंने एक मौलवी की नशे के बारे में हदीस सुना दी, जो महाशय के अनुसार उसने खुद ही गढ़ ली थी. तो महाशय से मैं पूछना चाहूँगा की चौदह सौ साल बाद जब एक मौलवी कुछ कह रहा है तो आपको उसकी हदीस पर एतबार नहीं. तो फिर आपने सूरज के बारे में पैगम्बर मोहम्मद (स.) की हदीस पर कैसे यकीन कर लिया की यह उसी रूप में है जिस रूप में मोहम्मद साहब ने हज़रत अबूज़र से फरमाया था? चौदह सौ सालों में लाखों ज़ुबानों से होती हुई जो हदीस आप तक पहुँच रही है क्या प्रूफ है की वह शत प्रतिशत सही है? हाँ कुरान के कलाम में आप कुछ ढूढकर लायें तो कुछ बात है.
इसके बाद महाशय कहते हैं "" और उन से कहा गया आओ अल्लाह की रह में लड़ना या दुश्मन का दफ़ीअ बन जाना। वह बोले कि अगर हम कोई लडाई देखते तो ज़रूर तुम्हारे साथ हो लेते, यह उस वक़्त कुफ़्र से नजदीक तर हो गए, बनिस्बत इस हालत के की वह इमान के नज़दीक तर थे।"सूरह आले इमरान ३ तीसरा परा आयात (168) ये जज़्बाए जेहाद ओ क़त्ताल ओ जंग और लूट मार जज़्बए ईमाने इस्लामी का अस्ल है. मुहम्मद पुर अमन किसी बस्ती पर हमला करने के लिए लोगों को वर्गाला रहे हैं, जिस पर लोगों का माकूल जवाब देखा जा सकता है जिसे मुहम्मद उनको कुफ्र के नज़दीक बतला रहे हैं. "
तो फर्जी मोमिन मियाँ, आपने अधूरी आयत का अधूरा तर्जुमा लेकर पैग़म्बर को आतंकवादी घोषित कर दिया. थोडा इन्साफ से काम लेते हुए पूरी आयत तो पढ़ी होती जिसका तर्जुमा इस तरह है. "जिस दिन दी गिरोहों की मुठभेड़ हुई तो वह खुदा के हुक्म से थी इस वास्ते की मोमिनों को जान ले और उन् को भी जान ले जो मुनाफ़िक़ हो गए थे, और उन् से जब कहा गया की आओ खुदा की राह में लड़ो या बचाओ ही करो तो कहने लगे अगर पहले से हम को लड़ाई की खबर होती तो हम तुम्हारी पैरवी ही न करते. इस दिन वह ईमान की बा निस्बत कुफ्र के ज्यादा करीब थे. इस आयत से यह साफ़ हो जाता है की कुछ लोग व्यक्तिगत फायेदा हासिल करने के लिए मुंह से मुसलमान हो गए थे. लेकिन जब दुश्मनों का हमला हुआ तो बहाना बनाकर पीछे हट गए. मिसाल के तौर पर अगर हमारे देश पर हमला हो और सेना के कुछ लोग यही जुमला कह कर पीछे हट जाएँ तो देश को उनके साथ क्या सुलूक करना चाहिए? इसके बाद भी अल्लाह और मोहम्मद (स.) की रहमत देखिये की उन्हें इस्लाम से बाहर नहीं किया. सिर्फ इतना कहा की वह ईमान से थोडा दूर हो गए हैं.
अगली आयत में मगरमच्छ के आंसू बहाने वालों को अल्लाह खबरदार कर रहा है और मोमिन मियां उसे ज़ख्मों पर नमक छिड़कना देख रहे हैं. शायद ये उस वक़्त की जंग में मौजूद थे या फिर वो मुनाफिक इनके बाप दादाओं में शामिल थे.
और अंत में (चूंकि बीच की पोस्ट में सिर्फ बकवास है.) वह तर्जुमे को लेकर ही चकरा गए, "तुझ को इस शहर में काफिरों का चलना फिरना मुबालगा में न डाल दे. चंद दिनों की बहार है, फिर उनका ठिकाना दोज़ख होगा और वह बुरी आराम की जगह है." महाशय , इसी आयत का एक तर्जुमा ये भी है, "जो लोग काफिर हो गए, उन् की शहर बा शहर की आमद रफत तुम को हरगिज़ धोखे में न डाले. ये चाँद रोज़ा है, फिर उन् का ठिकाना जहन्नुम है, और वह बहुत ही बुरा ठिकाना है." (Translated by Maulana Maqbool Ahmad) लीजिये 'आराम' शब्द हट गया.
4 comments:
भाई यह मोमिन नकली है, असली मोमिन कि अल्लाह की मदद से मैं कमर तोड चुका देखें उसका albedar.blogspot.com यह तो केवल उस स्थान से कापी कर रहा है जो गलत ghalat को galat लिखता है,
बधाई। ब्लॉगजगत में स्वागत।
बेहतर प्रयास, उस पाक किताब का तर्जुमां क्यों नही करते आप ब्लाग पर किस्त दर किस्त, काफ़ी लोगो तक पहुचेगी बात।
narayan narayan
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