इस्लाम एक ऐसा धर्म है जो अपनी पैदाइश से ही दुश्मनों से घिरा रहा. आज भी स्थिति अलग नहीं है. ज़ाहिर है की फिर हिंदी ब्लॉग जगत इससे अछूता कैसे रह सकता है. एक महाशय हाल ही में नकली नाम के साथ यहाँ नमूदार हुए हैं और कुरानी आयतों की ग़लत सलत व्याख्या करके मुस्लिम और गैर मुस्लिम दोनों को अपने हर्फ़-ए-ग़लत से बरगलाने की कोशिश कर रहे है. आइये देखते हैं उनकी पांचवीं पोस्ट जिसमें वह कुरान के दो अक्षर पढ़कर अपने को काबिल समझते हुए क्या कहने की कोशिश कर रहे हैं.
"मुसलमानों! सोचो अचानक मुहम्मद किसी अदभुत अल्लाह को पैदा करते है, उसके फ़रमान अपने कानों से अनदेखे फ़रिश्ते से सुनते हैं और उसको तुम्हें बतलाते है। वोह अल्लाह सिर्फ़ २३ सालों की जिंदगी जिया, न उसके पहले कभी था, न उसके बाद कभी हुवा।"
जनाब को शायद यह नहीं पता की अल्लाह ने हज़रत आदम से लेकर पूरे एक लाख चौबीस हज़ार पैगम्बरों से कलाम किया है. जिसमें ईसाइयों के पूज्य हज़रत ईसा, यहूदियों के पूज्य हज़रत मूसा, इब्राहीम, हज़रत नूह (Noah) जैसे तमाम नबी शामिल हैं. मुहम्मद (स.) के बाद भी अल्लाह का कलाम ख़त्म नहीं हुआ. इतिहास में हैं की अल्लाह ने तमाम वलियों और इमामों से कलाम किया है.
"----मगर काफ़िरों के लिए नफ़रत में अज़ाफा हो जाता है अल्लाह इन से नफ़रत के पाठ कैसे पढाता है, देखिए - -
" हाँ तुम ऐसे हो कि उन लोगों से मुहब्बत रखते हो और वोह लोग तुम से असला मुहब्बत नहीं रखते, हालां कि तुम तमाम किताबों पर ईमान रखते हो और ये लोग जो तुम से मिलते हैं कह देते हैं ईमान ले आए और जब अलग होते हें तो तुम पर अपनी उँगलियाँ काट काट खाते हैं, मरे गैज़ के.आप कह दीजिए की तुम मर रहो अपने गुस्से में."
इस आयत में उन महाशय को अल्लाह नफरत का पाठ पढ़ाते हुए दिखाई दे रहा है. जबकि कोई थोड़ी सी भी अक्ल रखने वाला इस आयात में देख सकता है की अल्लाह उन लोगों से सावधान कर रहा है जो मुंह पर कुछ और होते हैं और दिल से कुछ और.
"इस सूरह में शुरूआती इस्लामी जंगो का तज़करा है. पहली जंग बदर में हुई थी जिसमे मुसलमानों को फ़तह मिली थी और दूसरी जंग ओहद में हुई थी जिस में शिकस्त. फ़तह वाली जंग में अल्लाह ने मुसलमानों को मदद के लिए ३००० फ़रिश्ते भेज दिए थे. जंगे ओहद जो कि बकौल अल्लाह के मुहम्मद कि रज़ा के खिलाफ लड़ी गई थी, इस लिए फरिश्तों कि मदद नहीं आई "
तो अब महाशय ऐतिहासिक तथ्य भी नहीं जानते. मोहम्मद साहब (स.) के दौर की किसी भी जंग में मुसलमानों को शिकस्त नहीं हुई थी. ओहद में बस इतना हुआ था की कुछ मुसलमान माले ग़नीमत हासिल करने के चक्कर में पहरे से हट गए थे. नतीजे में दुश्मन को थोड़ी देर के लिए मौका मिल गया था. लेकिन बाद में मुसलमान फिर हावी हो गए थे. अगर मुसलमान हार जाते तो फिर मोहम्मद (स.) जिंदा न बचते.
"क्या उसके बाद अल्लाह को साँप सूँघ गया कि स्वयम्भू अल्लाह के रसूल की मौत के बाद उसकी बोलती बंद हो गई और जिब्रील अलैहिस्सलाम मृत्यु लोक को सिधार गए ? उस महान रचना कार के सारे काम तो बदस्तूर चल रहे हैं, मगर झूठे अल्लाह और उसके स्वयम्भू रसूल के छल में आ जाने वाले लोगों के काम चौदह सौ सालों से रुके हुए हैं, मुस्लमान वहीँ है जहाँ सदियों पहले था, उसके हम रकाब यहूदी, ईसाई और दीगर कौमें आज हम मुसलमानों को सदियों पीछे अतीत के अंधेरों में छोड़ कर प्रकाश मय संसार में बढ़ गए हैं."
महाशय, ये आपसे किसने कह दिया की दूसरी कौमें मुसलमानों से आगे है. अगर बात की जाए सभ्यता और समाज की तो विकसित देश इसमें बहुत पीछे है. क्या आपको मालूम है की दुनिया में सबसे ज्यादा मुजरिम अमेरिका में पैदा हो रहे हैं? जेलों को भरने में वह अव्वल नंबर है? ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा ज़िम्मेदार कौन है? अरब के मुसलमान किस बात में दूसरों से पीछे हैं? क्या वह गन्दगी में जी रहे हैं? या भूखों मर रहे हैं?
4 comments:
bahut accha
हम लगातार यह कह रहे हैं कि किसी अन्य धर्म् के व्यक्ति को दूसरे धर्म की व्याख्या नहीं करनी चाहिए । इसमें गलती होने की पूरी गुंजायश रहती है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि इस तरह की बेहूदगी पहले कुछ अधकचरे मुसलमानों ने ही शुरु की । वे कभी वेदों को गलत संदर्भ में पेश करते हैं तो कभी गौ-वंश को कोसते हैं । आप लखनऊ जैसी सभ्य जगह पर बैठे हैं..जरा इन अस्वच्छ लोगों को भी यह बात बताईए । घृणा के बदले केवल घृणा ही मिल सकती है विवेकशीलजन इस बात को समझते हैं । भारत में भारतीय बन कर ही हम मिलजुल कर रह सकते है...राष्ट्रीयता का विरोध अब हिन्दु सहन करने की स्थिति में नहीं हैं ।
प्रिय भाई, Divine Preaching
आपने बिलकुल सही कहा की किसी भी व्यक्ति को दूसरे के धर्म की अपने अनुसार व्याख्या नहीं करनी चाहिए. कोई भी धर्म हमेशा अच्छी बातों को ही सिखाता है. इसलिए हर धर्म सम्मान योग्य है. बल्कि अगर कोई किसी भी धर्म को न मानने वाला भी मानवता के लिए कोई भी कार्य कर रहा है तो वो भी सम्मान योग्य है.
प्रिय ज़ीशान भाई,
आपके स्नेह के लिए कृतज्ञ हूँ । मैं सनातनधर्म का प्रचारक हूँ, हिन्दुत्व के विषय में पढना और चर्चा करना मेरा काम है । मेरे घर में जितना सम्मान रामायण और गीता को मिलता है उतना ही सम्मान पाक कुराआन शरीफ को गिया जाता है । ये सभी ग्रंथ उनके मतावलम्बियों को सही रास्ता दिखाते हैं । आप जो भी हों हिन्दु या मुसलमान, सिक्ख या ईसाई या नए संदर्भों में अविश्वासी आपस में दुश्मन नहीं हो । हम एक दूसरे के सोच या कार्य का विरोध कर सकते हैं लेकिन हमें किसी की धार्मिक आस्था पर टीका -टिप्पणी करने का अधिकार नहीं है । कुछ ऐतिहासिक समस्याएँ हैं जिन्हें संभवत: आज के राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में हल नहीं किया जा सकता लेकिन शालीनता से दूसरों पर बिना कीचड उछाले जिया तो जा सकता है । हम (हिन्दु-मुसलमान)चाहे जितना झगड लें, किसी भी राजनैतिक पार्टी के वोट बैंक की हैसियत से अपना भविष्य खराब करलें -- हमें रहना तो इसी धरती पर और साथ-साथ है । फिर क्यों न अच्छे भाईयों की तरह एक-दूसरे की आस्था का आदर करते हुए साथ-साथ रहें । आप एक अच्छे मार्ग-दर्शक की भूमिका निभा सकते हैं ।
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