Monday, August 26, 2013

क्या न्यूटन भी मुसलमान था?

---जीशान हैदर जैदी 

जब मैंने ठोस तथ्यों द्वारा सिद्ध किया कि आइंस्टीन ने इस्लाम कुबूल कर लिया था तो कुछ लोगों की व्यंगात्मक प्रतिक्रिया आयी कि अब न्यूटन और गैलीलियो के भी मुसलमान होने की खबर आने वाली है।
जहाँ तक न्यूटन का सवाल है, मैं उसके मुसलमान होने का दावा तो नहीं करता, लेकिन ये दावा ठोस ऐतिहासिक तथ्यों के साथ ज़रूर कर सकता हूं कि उसकी धार्मिक व वैज्ञानिक सोच पूरी तरह इस्लाम से प्रभावित थी। और ये होना कोई आश्चर्य की बात भी नहीं क्योंकि सोलहवीं व सत्रहवीं शताब्दी में इस्लाम के गोल्डेन पीरियड(1) में हुई साइंसी तहक़ीक़ात यूरोप तक पहुंच चुकी थीं और इस्लामी मान्यताएं भी। इन ही इस्लामी तहक़ीक़ात के द्वारा यूरोप के ज्ञान चक्षु खुले और वे बाद में इस्लाम को बैकवर्ड कहने के क़ाबिल हो गये। वास्तव में सोलहवीं व सत्रहवीं शताब्दी के तमाम यूरोपियन विचारकों व वैज्ञानिकों पर इस्लाम का प्रभाव स्पष्ट रूप से नज़र आता है।
तो पहले बात करते हैं न्यूटन की धार्मिक मान्यताओं के बारे में।
यह सर्वमान्य तथ्य है कि न्यूटन नास्तिक नहीं था। जब उसने गति के नियम व गुरुत्वाकर्षण की खोज की तो उसने साथ में ये भी कहा (2) कि ''इससे ये न समझना चाहिए कि यूनिवर्स किसी आटोमैटिक मशीन की तरह है। ग्रैविटी ग्रहों की गति की व्याख्या करती है लेकिन इससे इसकी व्याख्या नहीं हो सकती कि ग्रहों की गति को किसने निर्धारित किया है। खुदा ही इन सबका निर्धारण करता है और जानता है कि क्या हो रहा है और क्या हो सकता है। न्यूटन के अनुसार यूनिवर्स को सुचारू रूप से चलाने के लिये खुदा की ज़रूरत हमेशा होती है।(3)
उसके उपरोक्त कथन से ये भी ज़ाहिर होता है कि वह एकेश्वरवादी था। अधिकतर इतिहासकार भी उसे एकेश्वरवादी मानने पर सहमत हैं।(4)(5)
न्यूटन यहूदी भी नहीं था। क्योंकि वह बाइबिल को भी मानता था और जीसस को भी। इस तरह अंतिम तौर पर यही कहा जा सकता है कि या तो वह क्रिश्चियन था या फिर इस्लामी मान्यताओं में विश्वास करता था। बहुमत उसे क्रिश्चियन मानता है, लेकिन मज़े की बात ये है कि वह बहुत सी ईसाई मान्यताओं पर विश्वास ही नहीं करता था। इसीलिए इतिहासकार उसे धर्म विरोधी (Heretic) कहते हैं।(4)
ईसाई  मान्यता व इस्लामी विश्वास में एक प्रमुख अंतर ये रहा है कि ईसाई जीसस क्राइस्ट (ईसा मसीह) को खुदा का बेटा मानते हैं और उन्हें भी खुदा की ही तरह पूजते हैं। जबकि इस्लाम में ईसा मसीह को अल्लाह का नबी माना जाता है। अब न्यूटन की नज़र में जीसस क्राइस्ट को खुदा की तरह पूजना मूर्ति पूजा के बराबर है और एक बड़ा गुनाह है। अक्सर इतिहासकारों ने न्यूटन की इस सोच की पुष्टि की है। यहाँ पर  न्यूटन का झुकाव इस्लामी सोच की तरफ स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। (6)
इतिहासकार स्टीफन डी स्नोबेलेन न्यूटन के धर्म के बारे में निष्कर्ष पर पहुंचते हुए कहता(4) है कि ''आइज़क न्यूटन धर्म विरोधी था। लेकिन उसने अपने इस विश्वास को सार्वजनिक नहीं किया था। वह अपनी मान्यताओं को इस तरह छुपाये रखने में कामयाब हुआ कि आज भी शोधकर्ता उसके व्यक्तिगत विश्वासों को बेनकाब नहीं कर सके हैं। स्नोबेलेन के अनुसार न्यूटन शायद एरियन था, लेकिन पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि वह प्रमुख ईसाई मान्यता ट्रिनिटी में विश्वास ही नहीं करता था।
जहाँ तक एरियन मान्यता की बात है तो उसमें जीसस क्राइस्ट को खुदा का बेटा नहीं माना जाता बल्कि ये माना जाता है कि खुदा ने जीसस क्राइस्ट को उसी तरह क्रियेट किया है, जिस तरह तमाम मख्लूक़ात को।(7) इस्लाम भी इस मान्यता का समर्थन करता है।  
यहाँ ये बात गौरतलब है कि अगर ईसाईयत से ट्रिनिटी की मान्यता हटा दी जाये और जीसस क्राइस्ट को खुदा का बेटा न माना जाये तो इस्लामी तौहीद (एकेश्वरवाद) व ईसाई मान्यता में कोई फर्क नहीं रह जाता। इस्लामी मान्यता में जीसस क्राइस्ट को अल्लाह का नबी माना जाता है न कि बेटा।
इस्लाम में बाइबिल बाइबिल में संकलित तौरात, ज़बूर और इंजील को कुरआन की ही तरह आसमानी किताब माना जाता है. लेकिन साथ ही ये भी माना जाता है कि इन किताबों बाइबिल में कई बदलाव हो चुके हैं और ये उस असली बाइबिल से अलग है जो हज़रत ईसा (जीसस) ने दुनिया के सामने पेश की थी।
न्यूटन भी बाइबिल को आसमानी किताब मानता था। उसने बाइबिल का गहराई से अध्ययन किया और उसमें छुपे हुए तथ्यों की खोज करने की नाकाम कोशिशें भी कीं। लेकिन साथ ही उसने इसकी भी प्रबल संभावना व्यक्त की कि बाइबिल में बदलाव हुए हैं । बल्कि उसने बाइबिल के कुछ बदलावों की तरफ लोगों का ध्यान  भी आकृष्ट किया।(8)
न्यूटन के ज़हन में खुदा का क्या तसव्वुर था इस बारे में जानना भी रोचक है। वह अपनी किताब प्रिंसिपिया में लिखता है, ''खुदा वक्त या जगह से बंधा हुआ नहीं है। वह ठोस है और उपस्थित  है। वह हमेशा से है और हर जगह मौजूद है। वह वक्त और जगह का सृजनकर्ता है। वह किसी भी वस्तु जैसा नहीं और न ही उसका कोई जिस्म है।
हम देखते हैं कि न्यूटन के ज़हन में खुदा का वही तसव्वुर है जो कि इस्लाम में अल्लाह का है। जैसा कि इमाम अली(अ.) नहजुलबलाग़ा में अल्लाह के बारे में फरमाते हैं,(9) ''न उस के लिए कोई वक्त है जिस की गणना की जा सके। न उस का कोई टाइम है जो कहीं पर पूरा हो जाये। उस ने कायनात को अपनी कुदरत से पैदा किया। उसकी पहचान निराकारता है और निराकारता का कमाल है कि उससे गुणों को नकारा जाये। और जिसने यह कहा कि वह किसी चीज़ पर है उसने और जगहें उस से खाली समझ लीं।
वह है, हुआ नहीं। मौजूद है लेकिन आरम्भ से वजूद में नहीं आया। वह हर मख्लूक़ के साथ है लेकिन जिस्मानी मेल की तरह नहीं है। वह हर चीज़ से अलग है लेकिन जिस्मानी दूरी की तरह से नहीं।
इमाम अली रज़ा(अ.)(10) पैगम्बर मोहम्मद(स.) की हदीस बयान करते हैं, 'उसने अल्लाह को नहीं पहचाना जिसने उसकी बनायी मख्लूक़ जैसा उसे तसव्वुर कर लिया। गौरतलब है कि उसकी बनायी मख्लूक़ में इंसान, जानवर, जानदार, बेजान, मैटर, एनर्जी सभी कुछ शामिल हैं।
और अब बात करते हैं न्यूटन की कुछ वैज्ञानिक खोजों पर। न्यूटन की तमाम वैज्ञानिक खोजों में भी इस्लामी मान्यताओं का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है।
मसलन न्यूटन ने एक महत्वपूर्ण खोज ये की है कि सफेद रौशनी दरअसल कई रंगों की रोशनियों का समूह होती है। इन्द्रधनुष के बनने के पीछे भी यही थ्योरी काम करती है। जब सूरज की सफेद किरणें हवा में मौजूद पानी की बूंदों से रिफ्लेक्ट होती हैं तो उनमें मौजूद अलग अलग रंग अलग अलग दिखाई देने लगते हैं। इसी तरह जब सफेद रंग की रौशनी  किसी प्रिज्म से गुजारी जाती है तो अलग अलग रंग दिखाई  देने लगते हैं।
सफेद रंग के बारे में ये हक़ीक़त मौजूद है हज़ार साल पुरानी शेख  सुददूक की लिखी किताब 'अल-तौहीद में । इस किताब में महान इस्लामी विद्वान इमाम जैनुल आबिदीन (अ.स.) का एक कथन कुछ इसी तरह दिया हुआ है। इमाम जैनुल आबिदीन (अ.स.) हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) के बेटे थे। इमाम जैनुल आबिदीन(अ.स.) का कथन इस तरह है कि(11) ''....अल्लाह ने अर्श की खिलक़त से पहले तीन चीज़ें हवा, क़लम और नूर (रौशनी) को पैदा किया। फिर अर्श को मुख्तलिफ अनवार (प्रकाश्पुन्जों) से खल्क किया। उस नूर में एक सब्ज़(हरा) नूर है जिससे सब्ज़ी सरसब्ज़ हुई । और एक जर्द (पीला) नूर है जिससे जर्दी सुनहरी बनी। और एक सुर्ख (लाल) नूर है जिससे सुर्खी सुर्ख हो गयी। और एक सफेद नूर है और वही तमाम अनवार का नूर है और उसी से दिन की रौशनी है।.....”
उपरोक्त कथन के अंतिम हिस्से में कहा गया है कि 'एक सफेद नूर है और वही तमाम अनवार का नूर है। मतलब साफ है कि सफेद रंग में सारे रंग शामिल हैं। यानि न्यूटन की उपरोक्त खोज इस्लामी सोच से ही निकल कर सामने आयी।
न्यूटन के नाम एक और उपलब्धि ये दर्ज है कि उसी ने सबसे पहले साइंटिफिक लाजिक या साइंटिफिक सोच को परिभाषित किया। वैज्ञानिक तर्कशास्त्र की आधारशिला उसने चार नियमों के द्वारा रखी जो इस तरह हैं,
1. किसी प्राकृतिक घटना के पीछे एक और केवल एक पूर्ण सत्य कारण होता है। 2. एक तरह की घटनाओं के लिये एक ही तरह के कारण होते हैं। 3. वस्तुओं के गुण सार्वत्रिक रूप से हर जगह समान होते हैं। 4. किसी घटना से निकाले गये निष्कर्ष तब तक सत्य मानने चाहिए जब तक कि कोई अन्य घटना उन्हें गलत न सिद्ध कर दे।
न्यूटन के बताये हुए ये उसूल आज भी साइंटिफिक रिसर्च में रौशनी की हैसियत रखते हैं। हालांकि इनमें से उसूल नं. तीन को आज की साइंस कुछ हद तक नहीं मान रही है क्योंकि आज की साइंस के मुताबिक हम एक मल्टीवर्स में हैं जिनमें बहुत से यूनिवर्स हैं और दूसरे यूनिवर्सेस में फिजिक्स के नियम बदल जाते हैं तो जाहिर है चीज़ों के गुण भी बदल जायेंगे। इसी तरह उसूल नं. चार भी चूंकि अंदाज़े पर आधारित है इसलिए इसे भी पूरी तरह सही नहीं मानना चाहिए। अब बाकी बचते हैं उसूल एक और उसूल दो। यानि किसी भी प्राकृतिक घटना के पीछे एक और सिर्फ एक वजह होती है।
पुन: कुछ पुरानी इस्लामी किताबों को खंगालने पर ये सच्चाई सामने आती है कि न्यूटन से बहुत पहले इस्लामी विद्वान साइंटिफिक उसूलों की बुनियाद निहायत मज़बूती से रख चुके थे।
हज़रत याकूब कुलैनी (अ.र.) की किताब उसूले काफी आज से ग्यारह सौ साल पहले लिखी गई किताब है यानि न्यूटन से छह सौ साल पहले की।
उसूले काफी में दर्ज हदीस(12) के मुताबिक इमाम जाफर सादिक (अ.स.) ने फरमाया, ''खुदा ने तमाम अशिया को असबाब से जारी किया है और हर शय का एक सबब करार दिया है। और हर सबब की एक शरह है और हर तशरीह के लिये एक इल्म है और हर इल्म के लिये एक बाबे नातिक है जिसने उनको जाना उसने मआरफत हासिल कर ली और जो जाहिल रहा वह जाहिल रहा, और ये इल्म वाले रसूल अल्लाह (स.) हैं और हम।
इस तरह इमाम जाफर सादिक (अ.स.) साफ साफ यह उसूल बता रहे हैं कि दुनिया में हर घटना (जिनमें कुदरती घटनाएं भी शामिल हैं।) और हर चीज़ की पैदाइश के पीछे एक सबब यानि कि कारण है। और कारण की एक व्याख्या (explanation) है। और उस व्याख्या को करने के लिये एक ज्ञान है। उस ज्ञान तक पहुंचने के लिये एक दरवाज़ा है (आज के दौर में यही साइंस है।) उस ज्ञान तक पहुंचने के लिये उस दरवाजे की मदद लेनी पड़ती है। इसके आगे इमाम जाफर सादिक (अ.स.) कह रहे हैं कि मोहम्मद (स.) और आले मोहम्मद(अ.) इन उलूम के दरवाजे हैं। और यह सच्चाई भी है क्योंकि हम देख रहे हैं कि जिस ज्ञान को यूरोप वाले अपनी खोज बता रहे हैं उनका सिलसिला कहीं न कहीं मोहम्मद (स.) व आले मोहम्मद(अ.) से जुड़ा हुआ है। यहां तक कि साइंस के बुनियादी उसूल भी यहीं पर पहली बार मिलते हुए दिखाई दे रहे हैं। जिसको न्यूटन ने यूरोप के सामने प्रस्तुत किया।
न्यूटन की एक और महत्वपूर्ण खोज है गति के नियम। यानि किसी चीज़ की अवस्था में परिवर्तन लाने के लिये ताकत की ज़रूरत हमेशा पड़ती है।
इसी बात को इमाम अली(अ.) चौदह सौ साल पहले निहायत आसान ज़बान में बता रहे हैं। किताब नहजुल बलाग़ा के खुत्बा नंबर 150 में इमाम अली(अ.) खुदा का जि़क्र करते हुए फरमाते हैं,(13) ''वह पैदा करने वाला है लेकिन न इस मायने में कि उसे हरकत करना और तआब उठाना पड़े।” यानि इस दुनिया में जब भी कोई पैदाइश होती है तो वह किसी हरकत के ज़रिये और कुछ मुश्किलात के बाद होती है। मसलन कोई कुम्हार जब मिटटी का बर्तन बनाता है तो वह गीली मिटटी को नयी शक्ल देता है। इस अमल में उसे उन विरोधी ताकतों के खिलाफ काम करना पड़ता है जो गीली मिटटी को नयी शक्ल देने का विरोध करती हैं। यानि इलास्टिसिटी (Elasticity) व इनर्शिया (Inertia) जैसी ताकतें। इस तरह की तमाम विरोधी ताकतें हर तरह की पैदाइश में काम दिखाती हैं और जब तक इनके खिलाफ 'काम न किया जाये तब तक नयी पैदाइश नहीं होती। यानि विरोधी ताकतों के खिलाफ काम करना होता है और साथ में हरकत करनी होती है यानि एनर्जी खर्च करनी पड़ती है। लेकिन अल्लाह इन दोनों बातों से बरी है। क्योंकि वह विरोधी ताकतों का भी खालिक़ है और एनर्जी का भी। इसलिए कोई भी ताकत उसके विरोध में नहीं हो सकती और न ही वह अलग से अपनी कोई एनर्जी खर्च करता है। उसे ऐसा करने की ज़रूरत ही नहीं।
जबकि मख्लूक़ जब भी किसी पैदाइश के अमल से गुज़रती है तो हमेशा उसे विरोधी ताकतों के खिलाफ हरकत करनी पड़ती है और काम करना पड़ता है। फिजि़क्स का यही उसूल तारीख में न्यूटन के नाम के साथ दर्ज है इन अलफाज़ के साथ, 'किसी चीज़ की हालत में तब तक तब्दीली नहीं होती जब तक कि उसपर बाहरी ताकत न लगायी जाये। दरअसल नयी पैदाइश हालत की तब्दीली का ही नाम है और न्यूटन ने यही उसूल दिया कि हालत की तब्दीली के लिये ताकत लगानी लाज़मी है। अगर कोई मख्लूक़ ताकत लगाती है तो उसे हरकत करनी व तआब उठानी पड़ती है। जबकि खुदा इससे बरी होता है। इस तरह न्यूटन ने वही बताया जो इमाम अली(अ.) अपने खुत्बे में कहीं ज्यादा पुख्ता तरीके से न्यूटन से ग्यारह सौ साल पहले बता चुके हैं।
न्यूटन को कैलकुलस का आविष्कारक भी माना जाता है। कैलकुलस गणित की ऐसी शाखा है जिसके बगैर आज साइंस की किसी भी शाखा की तरक्की की कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन इसी कैलकुलस के आविष्कारक के तौर पर न्यूटन व लाइबनिज़ का झगड़ा भी काफी मशहूर हुआ है। आज यूरोप दोनों को ही इसके आविष्कार का क्रेडिट देता है, लेकिन कुछ र्इमानदार अमेरिकन इतिहासकारों के अनुसार न्यूटन से छ: सौ साल पहले जन्मा अरबी मुसिलम वैज्ञानिक अल हैथम (AlHazen) कैलकुलस का उपयोग करते हुए परवलयाकार बर्तन का आयतन निकाल चुका था।(14)  
तो हम कह सकते हैं कि भले ही न्यूटन की पर्सनल धार्मिक मान्यताएं अँधेरे में हों लेकिन यह बात शीशे की तरह साफ है कि उसकी सोच और उसकी साइंस पर इस्लामी मान्यताओं का पूरी तरह प्रभाव था। हो सकता है कि उसने इस्लाम कुबूल कर लिया हो लेकिन जान के खौफ या अन्य कारणों से उसने इसे ज़ाहिर करना उचित न समझा हो। ये भी हो सकता है कि वह समस्त खोजों का क्रेडिट केवल स्वयं को देना चाहता हो, इसलिए इस्लाम के बारे में चुप साध ली हो। क्योंकि उसका इस्लाम के बारे में कहीं कोई कथन नहीं मिलता न तो विरोध में और न ही समर्थन में।  

References :
(1) Islamic Radicalism and Multicultural Politics. Taylor & Francis. p. 9. ISBN 978-1-136-95960-8. Retrieved 26 August 2012.
(2) Tiner, J.H. (1975). Isaac Newton: Inventor, Scientist and Teacher. Milford, Michigan, U.S.: Mott Media. ISBN 0-915134-95-0.
(3) Opticks, 2nd Ed 1706. Query 31.
(4) Snobelen, Stephen D. (1999). "Isaac Newton, heretic: the strategies of a Nicodemite" (PDF). British Journal for the History of Science 32 (4)
(5) Avery Cardinal Dulles. The Deist Minimum. January 2005.
(6) Westfall, Richard S. (1994). The Life of Isaac Newton. Cambridge: Cambridge University Press. ISBN 0-521-47737-9.
(7)Williams, Rowan (2002). Arius: heresy and tradition. Wm. B. Eerdmans Publishing Co. p. 98. ISBN 978-0-8028-4969-4.
(8) John P. Meier, A Marginal Jew, v. 1, pp. 382–402 after narrowing the years to 30 or 33, provisionally judges 30 most likely.
(9) Nahjul Balagah (saying of Imam Ali a.s.) - Khutba : 1
(10) Kitab Al Tauheed by Sheikh Saduq(a.r), 'Tauheed ka Asbat aur Tashbih ki Nafi'
(11) Kitab Al Tauheed by Sheikh Saduq(a.r), 'Arsh aur Us ki Sifat'
(12) Usool-E-Kafi, Book 2, Part 14 by Sheikh Mohammad Yaqoob Kulaini(a.r)
(13) Nahjul Balagah (saying of Imam Ali a.s.) - Khutba : 150
(14) Katz, Victor J. (1995). "Ideas of Calculus in Islam and India". Mathematics Magazine 68 (3): 163–174. doi:10.2307/2691411

3 comments:

Anonymous said...

हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच} किसी भी प्रकार की चर्चा आमंत्रित है दोनों ही सामूहिक ब्लौग है। कोई भी इनका रचनाकार बन सकता है। इन दोनों ब्लौगों का उदेश्य अच्छी रचनाओं का संग्रहण करना है। कविता मंच पर उजाले उनकी यादों के अंतर्गत पुराने कवियों की रचनआएं भी आमंत्रित हैं। आप kuldeepsingpinku@gmail.com पर मेल भेजकर इसके सदस्य बन सकते हैं। प्रत्येक रचनाकार का हृद्य से स्वागत है।

Shah Nawaz said...

अच्छी कोशिश... मज़ाक उड़ाने वालों की क्यों फ़िक्र करते हैं... यह तो वह हमेशा से करते आएं हैं, उनके पीछे वोह जो लगा है, जो इंसान का खुला दुश्मन है।

DR. ANWER JAMAL said...

आपके इस लेख को शेयर किया तो काफी प्रतिक्रियाएं मिली हैं. आप देखना चाहें तो यहाँ देख सकते हैं-
http://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/BUNIYAD/entry/islamic-thought

एक अच्छा लेख.
शुक्रिया.